September 27, 2011

कभी कभी प्यार की चादर उतार फेंकू ऐसा सोचता हूँ |
सच और झूठ के बीच बैठा,
हर कदम पे चौराहे पाता,
आँखों पे इंतज़ार का पर्दा लटकाए,
विश्वास के घड़े को छलकते देखता |

मन में बैठे उस निश्चल लड़के की हर रोज़ उम्र कम होती है,
उसके इन्द्रधनुषी ख्वाबों में किसीकी स्याही घुल गयी,
उसके खिलखिलाती हंसी में खामोशियाँ घर कर गयीं,
उमंगो की टहनियों को सच्चाई की कड़वाहट काट गयी,
हँसता वो आज भी है, मगर 
हंसी जैसे किसी सोच में खोयी हो उसकी,
सपने वो आज भी देखता है, मगर 
अब रास्तों में वो बात नही|

जाने झूठ को क्यूँ दिल में पनाह देता हूँ,
जाने शब्दों को क्यूँ दिल में दबा लेता हूँ,

प्यार की लहरें इतनी अजीबोगरीब क्यूँ होती हैं ?
समंदर की लहरों को तो फिर भी किनारे नसीब होते हैं,
प्यार की समंदर के किनारे नहीं होते |



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